Saturday, 27 February 2016

विनय के पद - तुलसीदास

जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी समजदपि    प्रेम   सनेही ।।1।।
तज्यो पिता प्रहलादविभीषण बंधु , भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं , भए मुद-मंगलकारी।।2।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां  लौं ।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ   लौं ।।3।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे ।
जासों होय सनेह राम पद , एतो मतो     हमारो ।
तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसे सीता राम प्रिय नहीं हैं वह भले ही अपना कितना ही प्रिय क्यों नहीं हो उसे बड़े दुश्मन के सामान छोड़ देना चाहिए |कवि अनेक उदाहरणों से सिद्ध करते हैं प्रहलाद ने अपने पिता हिरणकश्यप का,विभीषण ने अपने भाई रावण का ,भरत ने अपनी माँ ,राजा बलि ने अपने गुरू और ब्रज की स्त्रियों ने कृष्ण के प्रेम में अपने पतियों का परित्याग किया था | उन सभी ने अपने प्रियजनों को छोड़ा और उनका कल्याण ही हुआ |राम के साथ प्रेम का नाता ही सबसे बड़ा नाता है ,सम्बन्ध है | नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां  लौं । मित्र और पूजनीय लोगों के साथ हमारा सम्बन्ध ,उनके राम के साथ सम्बन्ध (प्रेम और स्नेह ) पर आधारित (जहां  लौं )होना चाहिए | ऐसे सुरमे को आँख में लगाने से क्या लाभ जिससे आँख ही फूट जाए ?  तुलसी दास जी कहते हैं कि वह व्यक्ति सब तरह से परम हित , पूज्य और प्राण से प्यारा है जिसके ह्रदय में राम के पद है |यह उनकी व्यक्तिगत राय है | बैदेही सीता , तजिये छोड़ दीजिए, कंत पति ,बनित्नहिं स्त्रियों की ,सुह्र्द संबंधी, सुसेब्य पूजनीय ,आराधना करने योग्य ,अंजन काजल, सनेह - प्रेम
ऐसो कौ उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर
,
राम सरस कोउ नाहि ॥ 
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावण सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित हरि दीन्हीं ॥
तुलसीदास सब भांति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तो भजु राम काम सब पूरन करहि कृपानिधि तेरो ॥
उदारबड़े दिलवाला , द्रवे- पिघल जाते , सरस- समान, बिराग- वैराग्य , जतन प्रयत्न , संपति- धन
अरप- अर्पण  सकुच सहित बिना किसी अभिमान के  , कृपानिधि दया के सागर
तुलसीदासजी कहते हैं कि भगवान् राम के समान उदार संसार में और कोई नहीं है |राम के अतिरिक्त ऐसा कोई दूसरा कोई नहीं है जो दीं दुखियों पर बिना सेवा के ही करूणा करे |जो गति ज्ञानी मुनि योग और विराग तथा अनेक प्रयत्न करके भी नहीं प्राप्त कर पाते वह गति राम ने जटायु और शबरी को दिया और उस अहसान को मन में बहुत बड़ी बात न समझा |जो सम्पति रावण  ने अपने दस सिर चढ़ाकर शिव से प्राप्त की थी उसे बड़े ही संकोच के साथ बिना अभिमान के राम ने विभीषण को दे दिया |तुलसीदास कहते हैं कि मेरा मन जितने प्रकार के सुख चाहता है वे सब राम की कृपा से प्राप्त हो जायेंगे |तो हे मन ! तू राम का भजन कर |राम कृपा निधि हैं , वे हमारी सभी मनोकामनाएं पूरी करेंगे |
Who is so generous in the world to melt (with compassion) on the distressed never in His service? There is none like Rāma. The state which (even) seers and the Jñānī do not get performing penance and non-attachment (for ages), Rāma gifted that state (of Haripada) to the vulture Jaṭāyū and the Bhilla woman Śabarī, and did not consider it to be enough in His mind.[1—2]
The prosperity that Rāvaṇa obtained from Śiva after offering ten heads, Rāma gave that affluence to Vibhīṣaṇa with extreme hesitation (thinking even this is not enough to be given to Vibhīṣaṇa). Tulasīdāsa says, O my mind! If you want all pleasures in all ways, then sing of Rāma. He, Who is the ocean of compassion, will fulfill all your desires.[3—4]

साभार - गूगल