Wednesday, 12 September 2018

मेरे नगपति !मेरे विशाल !
साकार ,दिव्य,गौरव विराट
पौरूष के पुंजीभूत ज्वाल !
मेरी जननी के हिम किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल
मेरे नगपति मेरे विशाल !
नगपति –पर्वत राज
साकार –आकार वाला
दिव्य अलौकिक (divine )
गौरव –गर्व
विराट बड़ा
पुंजीभूत - भंडार
जननी- भारत माँ
हिम किरीट -बर्फ का टुकड़ा
कवि कहते हैं कि हे पर्वतों के राजा हिमालय ! तुम अत्यंत विराट विशाल अलौकिक महान गौरवशाली पराक्रमी व आग के सामान तेजवान हो |भारत माता के बर्फ के मुकुट भी तुम ही हो ,तुम्ही मेरे भारत के अद्वितीय मस्तक भी हो |तुम्हें देखकर लगता है कि भारतमाता ने उज्ज्वल ,चमचमाता सफेद मुकुट धारण किया है |हे हिमालय !तुम सम्पूर्ण भारत के गौरव हो एवं सम्पूर्ण भारत के सिरमौर हो |
कवि ने ‘नगपति’ को कौन –कौन से विशेषण दिए हैं और क्यों ?

युग युग अजेय ,निर्बंध ,मुक्त !
युग युग शुचि ,गर्वोन्नत ,महान !
निस्सीम व्योम में तान रहे
युग से किस महिमा का वितान ?
कैसी यह अखंड चिर समाधि ,
यतिवर !कैसा यह अमर ध्यान ?
तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान ?
उलझन का कैसा विषम जाल ?
मेरे नगपति ,मेरे विशाल !
युग युग – अवधि ,काल
अजेय –जिसको जीता न जा सके
निर्बंध – बन्धनहीन मुक्त –स्वतंत्र ,शुचि –पवित्र ,गर्वोन्नत –गर्व से ऊंचा उठा हुआ
निस्सीम –अनंत
व्योम आकाश ,महिमा गौरव  वितान- तम्बू 
अखंड – जो खंडित न हो
चिर समाधि – लंबी समाधि
यतिवर –तपस्वी
महाशून्य –आकाश
जटिल कठिन
निदान हल
विषम –असमान
कवि कहते हैं कि हे विशाल हिमालय ! तुम्हें चिर काल से अब तक कोई नहीं जीत सका है और न ही कोई पराधीन कर सका है तुम सदा से स्वतंत्र हो युगों से अपना सीना ताने खड़े हो अर्थात स्वाभिमान से सिर उठाये खड़े हो |तुम सदा से पवित्र रहे हो और तुम्हारी पवित्रता को कोई भी भंग नहीं कर सका है |तुम अपने विशाल शरीर के साथ अनंत आकाश में दूर तक फैले और अटल खड़े हुए भारतवर्ष के असीम अटूट गौरव का बोध कराते हो |विस्तृत आकाश जिसका कोई ओर छोर नहीं तुम्हारी महिमा का वितान ताने न जाने कब से खड़ा है |
         i.            कवि ने हिमालय को ‘युग -युग अजेय ,निर्बंध ,मुक्त’ क्यों कहा है ?
कवि ने हिमालय को युग –युग अजेय’ इसलिए कहा है क्योंकि हिमालय युगों –युगों से अजेय है ,उसे कोई भी नहीं जीत पाया है |हिमालय को ‘निर्बंध ,मुक्त’ इसलिए कहा गया है क्योंकि वह किसी भी प्रकार से बंधन से परे है ,स्वतंत्र है |

       ii.            यतिवर’ का क्या अर्थ है ? ‘हिमालय’ और ‘यतिवर’ में क्या समानता है ?
यतिवर का अर्थ  श्रेष्ठ योगी है |जैसे योगी –जीव जगत के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए ,ध्यान -मग्न हो अखंड और चिर समाधि में लीन रहता है उसी प्रकार हिमालय भी मानो किसी जटिल समस्या का हल ढूढने के किये सदियों से एक ही स्थान पर अवस्थित हो ध्यान में डूबा है|     ध्यानावस्थित योगी जिस प्रकार मौन होता है ,उसीप्रकार हिमालय भी मौन है |इसी कारण कवि ने हिमालय की तुलना योगी से करते हुए उसे श्रेष्ठ योगी कहा है |
      iii.            हिमालय के सांस्कृतिक महत्त्व को स्पष्ट कीजिए |
हिमालय भारतवर्ष का सबसे ऊंचा पर्वत है ,जो उत्तर में देश की लगभग 2500 किलोमीटर लम्बी सीमा बनाता है और देश को उत्तर एशिया से पृथक करता है |कश्मीर से लेकर असं तक इसका विस्तार है |पुरानों के अनुसार हिमालय मैना का पति और पारवती का पिटा है |गंगा इसकी सबसे बड़ी पुत्री है |भगवान् शंकर का निवास कैलाश पर्वत है |महाभारत के अनुसार पांडव  स्वार्गारोहन के लिए यही आये थे |युधिष्ठिर देव्रथ में बात कर जब सशरीर जाने लगे ,तो उनकी इंद्रा से भेंट यहीं हुयी थी |कवि ने हिमालय को तपस्या का प्रतीक बताया है |भारतीय संस्कृति में ध्यान –जप –तप का बहुत महत्त्व माना गया है |हिमालय ध्यान –जप –ताप और आध्यात्म का केंद्र है |भारतवासी हिमालय की पवित्रता को स्वीकार करते हैं |अनेक देवी देवताओं का यहाँ निवास मानते हैं |
     iv.            निम्न शब्दों के अर्थ लिखिए :-
व्योम –आकाश
अखंड-जिसका टुकड़ा न हो ,लगातार
जटिल कठिन
शुचि-पुनीत ,पवित्र –
निदान-हल समाधान
वितान –फैलाव ,विस्तार ,चँदोवा
ओ मौन ,तपस्या लीन यती !
पलभर को तो कर नयनोंन्मेष|
रे !ज्वालाओ से दग्ध ,विकल |
है तड़प रहा पद पर स्वदेश |
सुखसिंधु ,पंचनद ब्रह्मपुत्र ,
गंगा यमुना की अमियधार |
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करूणा उदार |
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
सीमापति !तूने की पुकार
‘पददलित इसी करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार |’
उस पुण्यभूमि पर आज तपी
रे , आन पड़ा संकट कराल ,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डंस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
मेरे नगपति |मेरे विशाल !

मौन चुप ,तपस्यालीन  तपस्या में लगे ,यति तपस्वी ,नयनोन्मेष- आँखे खोलना ,दग्ध जला हुआ विकल व्याकुल ,पद पैर ,स्वदेश अपना देश ,सुखसिंधु सुख देनेवाली सिन्धुनदी, पंचनदी –पाँच नदियों का समूह अर्थात सतलुज व्यास रावी ,चेनाव और झेलम
अमिय अमृत ,पुण्यभूमि –पवित्रभूमि ,
विगलित पिघली हुई ,हिमालय की बर्फ के पिघलने से बनी नदियों की तुलना भारत के प्रति हिमालय की करूणा से की गयी है |
करूणा –दया ,उदार –दयालु ,क्रांत त्रस्त ,पददलित –पैरों तलोंकुचला हुआ
कराल भयंकर ,चतुर्दिक चारों ओर से ,विविध अनेक प्रकार के
व्याल सर्प
कवि तपस्या में लीन हिमालय को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे तपस्या में लीं साधक हिमालय !ज़रा एक पल के लिए तोडो तो सही |अपनी आँखे खोलो और अपने अपने देश की इस्थिति को ध्यान में लाओ और सोच विचार करो |आज तुम्हारे देश को तुम्हारी जरूरत है |तुम्हारा देश युद्ध की ज्वालाओं से लिपटा हाया बुरी तरह से व्याकुल होकर बेचैनी से तड़प रहा है |जिस पवित्र भूमि पर तुमने अपनी उदारता दिखाते हुए  सिंधु व पञ्च नदियों के माध्यम से जल रूपी अमृत की वर्षा की थी –गंगा और यमुना की अमृत जलधारा भी तुम्हीं ने प्रवाहित की थी –वह पवित्र भारत भूमि आज संकट में है |
पवित्र भारत भूमि के बारे में बताते हुए कवि आगे कहते हैं कि हे सीमापति हिमालय !तुमने शत्रु के समक्ष घोर गर्जना की थी कि इस डरती पर कदम रखने से पहले उसे तुम्हारे ऊँचे शिखरों का सामना करना पडेगा ,आज उसी पवित्र भारत भूमि पर भयंकर संकट आ गया है |चारों दिशाओं से शत्रु हमारी मातृभूमि पर आक्रमण करने के लिए घेरा डाले हुए हैं ,देशवासी अत्यंत व्याकुल हैं |चारों ओर सर्प से भयंकर विषैले नाग डसने के लिए आगे बढ़ रहे हैं |ऐसे समय में हे मेरे विशाल नगपति ,तुम मौन क्यों खड़े हो ?क्या अपने कर्तव्य को तुमने भुला दिया ?


कितनी मणियां लुट गयीं ?
मिटा मेरा कितना वैभव अशेष !
तू ध्यान मग्न ही रहा इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश |
तू तरुण देश से पूछ ,अरे
गूंजा यह कैसा ध्वंस राग ?
अंबुद्धि –अन्तस्तल बीच छिपी यह सुलग रही कौन आग ?प्राची के प्रांगन बीच देख
जल रहा स्वर्ण युग अग्नि ज्वाल ,
तू सिघ्नाद कर जाग ,तापी |
मेरे नगपति !मेरे विशाल !

मणियां –मूल्यवान वस्तुएं
वैभव – संपत्ति
अशेष –सम्पूर्ण
वीरान उजाड़
तरुण युवा
ध्वंस राग –नाश का गीत
अम्बुधि 
अंत स्तल -अन्तः ह्रदय ,समुद्र के गर्भ में
प्राची –पूर्व
प्रांगण- आँगन
स्वर्णयुग –सबसे अच्छा समय
सिंह नाद –शेर की गर्जना
कवि हिमालय को संबोधित करते हुए कहते हैं कि शत्रु ने अनेक बार हमारे देश पर आक्रमण किया तथा बहुमूल्य रत्न सब लूट लिए ,भारत माता का सब ऐश्वर्य भी मिट गया |इस प्रकार सारा वैभव भी मिट गया |तुम समाधि में लीन ही रहे और सारा देश उजाड़ हो गया |
कवि अनेक वीरों ,महापुरूषों व योद्धाओं का स्मरण करने के बाद देश के नवयुवकों को जाग जाने के लिए और प्राचीन वैभव और कीर्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए ललकारते हुए कह रहें है कि देखो आज देश में विनाश लीला चारों ओर तांडव नृत्य कर रही है समुद्र में छिपी ज्वाला की भांति विदेशियों द्वारा द्वारा किये गए प्रहार व लूट-पात से पीड़ा हुई क्रोध की भी प्रत्येक जनमानस के ह्रदय में सुलग रही है अर्तात उन्हें विद्रोह करने के लिए उकसा रही है |
कवि पुनः देश के युवाओं को पूर्व दिशा की ओर अर्थात भारत की ओर देखने और सचेत रहने के लिए कहते हुए लिखते हैं कि पूर्व दिशा के आँगन में आज भारत का स्वर्ण युग अग्नि की लपटों में लिपटा सुलग रहा है अर्थात भारत की अपार संपदा धीरे धीरे नष्ट हो रही है |हे हिमालय ! तू तपस्वी है |अतः अपनी समाधि और तपस्या को भंग कर जाग जा और सिंह के सामान गर्जना कर ताकि समस्त विश्व में तेरी यह आवाज़ गुंजायमान हो जाए कि भारत का विशाल नाग पति ,हिमालय सतर्क हो चुका है |



रे ,रोक युद्धिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उसको स्वर्ग ,धीर  !
पर,फिरा हमें गांडीव गदा ,लौटा दे हमें अर्जुन -भीम वीर!
कह दे शंकर से ,आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार |सारे भारत में गूँज उठे ,
‘हर -हर  -बम’ का फिर महोच्चार !
ले अंगड़ाई ,उठ हिले धरा ,कर निज विराट स्वर में निनाद ,
तू शैल रात !हुंकार भरे ,फट जाए कुहा ,भागे प्रमाद |तू मौन त्याग कर सिंह नाद ,
रे तापी आज ताप का न काल !
नवयुग शंखध्वनि  जाग रही
तो जाग ,जाग ,मेरे विशाल !मेरी जननी के हिम किरीट !
मेरी जननी के दिव्य भाल !
धीर -धैर्यवान
गांडीव –अर्जुन का धनुष
प्रलय नृत्य –विनाश का नाच
महोच्चार –ऊँचे स्वर में उद्घोष
निज –अपना
निनाद –जोर की आवाज
कुहा कुहासा
प्रमाद –आलस्य
मौन त्याग –चुप्पी छोड़
नव युग  -नया युग 
कवि कहतें हैं कि आज हमारे देश को युद्धिष्ठिर जैसे धर्मराज व शांत तपस्वियों की आवश्यकता नहीं है ,आज तो अर्जुन को अपने गांडीव को पुनः उठाना होगा जिसके बाण अचूक हैं तथा भीम की गदा की आवश्यकता है अर्थात आज युद्धिष्ठिर जैसे शांत स्वभाव के व्यक्तियों की नहीं बल्कि भीम और अर्जुन जैसे योद्धाओं की आवश्यकता है |
कवि भगवान शंकर से एक बार फिर अपनी तीसरी आँख खोलने और प्रलय नृत्य करने के लिए कह रहे हैं जिससे उनके भक्त ‘हरहर बम बम’ की आवाज से भारत मान की पावन धरती को गुंजायमान कर दें ताकि चारों दिशाओं से वीर आ सकें और अपना पराक्रम दिखाते हुए भारत की रक्षा कर सकें |
हर हर बम बम’ की आवाज के गूंजने पर यह धरती हिल उठेगी अर्थात सभी वीर बहादुर देश प्रेमी सजग हो हुंकार भरते हुए आगे बढ़ने लगेंगे जिससे आलस्य और कायरता भाग जायेगी |
अंत में कवि हिमालय से आग्रह करते हुए कहतें हैं कि हे तपस्वी आज तपस्या करने का समय नहीं है |नव युग के लिए युद्ध की शंख ध्वनि बज चुकी है अतः तू जाग |अपनी तपस्या को तोड़ कर भारत मान की रक्षा हेतु अटल और सजग होकर खड़ा हो जा क्योंकि तू ही भारत माता के मस्तक का बर्फीला व चमकने वाला मुकुट है |













2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर एवम् प्रिय

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  2. बहुत ही लाजवाब ।

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